उर्गम (रघुवीर नेगी): चमोली जिला देवालयों और इनकी विशिष्ट पौराणिक परम्पराओं के लिये विश्व विख्यात है। जिसके चलते प्रतिवर्ष यहां देश और विदेश के श्रद्धालु जिले के सूदूरवर्ती क्षेत्रों में मौजूद मंदिरों के दर्शनों के लिये पहुंचते हैं। जिले में ऐसी ही विशिष्ठ परम्पराओं वाला भगवान नारायण का मंदिर है वंशीनाराय मंदिर! इस मंदिर में वर्षभर में महज रक्षाबंधन के दिन भी पूजा करने की परम्परा पौराणिक काल से चली आ रही है। ऐसे में यह धार्मिक आस्थावान लोगों के आस्था के साथ ही कौतूहल का केंद्र भी है।
चमोली जिले में मध्य हिमालय में स्थित उर्गम घाटी में वंशीनारायण मंदिर समुद्रतल से 12 हजार फिट की ऊंचाई पर है। मंदिर के नाम से यह भगवान कृष्ण का मंदिर प्रतित होता है, लेकिन यहां भगवान नारायण के चर्तुभुज स्वरुप में जलेरी में विराजमान हैं। साथ ही मंदिर में भगवान गणेश के साथ ही वनदेवियों की पौराणिक पाषाण मूर्तियां मौजूद हैं। मंदिर कत्यूरी शैली में तराशे गये पत्थरों से बनाया गया है। वहीं मंदिर में वर्षभर में रक्षाबंधन के दिन पूजा अर्चना की पंरपरा इसे विशिष्ट पहचान देती है।
रक्षाबंधन को पूजा की क्या है धार्मिक मान्यता
हिन्दू धार्मिक ग्रंथ स्कंद पुराण, पद्म पुराण और श्रीमद् भागवत के अनुसार जब भगवान नारायण ने वामन अवतार लेकर राजा बलि के अहंकार को नष्ट करने के लिये धरती व आकाश नाप लिये और तीसरा पग रखने के लिये भगवान वामन ने स्थान मांगा तो राजा बलि ने अपना शीश प्रस्तुत कर दिया। जिस पर भगवान वामन के पग रखते ही वे राजा बलि का अहंकार नष्ट होने पर भगवान नारायण ने उन्हें वरदान मांगने को कहा तो राजा बलि ने भगवान से सदैव उनके सम्मुख रहने का वरदान मांग लिया। जिस पर नारायण ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। ऐसे में भगवान नारायण को न पाकर माता लक्ष्मी परेशान होकर उन्हें खोजने लगी। तो देवऋषि नारद ने भगवान नारायण की पाताल में होने की जानकारी दी। जिस पर माता लक्ष्मी देव़ऋषि के साथ पाताल लोक जाकर रक्षाबंध पर राजा बलि को रक्षासूत्र बांधा। जिस पर राजा बलि की ओर से माता लक्ष्मी को भेंट मांगने को कहा गया। जिस पर उन्होंने उनके दरबार में द्वारपाल बने नारायण को मुक्त कर दिया। इसी जुड़ी मान्यता है कि वंशीनारायण मंदिर में प्रतिदिन देवऋषि की ओर से पूजा-अर्चना की जाती थी। लेकिन भगवान नारायण की खोज में माता लक्ष्मी से साथ रक्षाबंधन के लिये जाने पर यहां पूजा-अर्चना न होने के चलते यहां कलगोठ के ग्रामीणों द्वारा पूजा अर्चना की गई। जिसके चलते ग्रामीण आज भी इस पौराणिक परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं।
मंदिर के निर्माण को लेकर यह है जनश्रुति
मान्यता के अनुसार गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति के दौरान जब पांडव मध्य हिमालय क्षेत्र से गुजर रहे थे। तो यहां पांडवों द्वारा मंदिर का निर्माण किया गया है। कहा जाता है कि पांडव उक्त मंदिर को एक रात्रि में निर्मित करना चाहते थे। लेकिन मंदिर निर्माण से पूर्व ही सुबह हो गई थी। जिसके चलते पांडवों द्वारा मंदिर का निर्माण अधूरा छोड़ दिया गया।